मंगलवार, 3 सितंबर 2013

आँचल

नींद रातों को अब मुझे आती ही नहीं,
शायरी लबों में देकर, वो क्यूँ लोरियाँ छीन लेता है।

रंज है खुदा से मुझको, पुछूँगा कयामत पे
दुपट्टा हाथ में देकर, वो क्यूँ आँचल छीन लेता है॥

मंगलवार, 14 मई 2013

काश

कब आएगा इतवार ? Sunday kab hai?
काश होता ऐसा कि हर रोज इतवार होता!
हम बेफिक्र सोते और वक्त बेशुमार होता॥

ना मोटरों की पों-पों, ना बाज़ार होता।
ना कोई जलन होती, ना कोई गुबार होता॥

ना रोटी कि ज़ज्ब होती ना कोई बीमार होता।
हर जान चैन सोती, ना कोई बेज़ार रोता॥

हम सपने हज़ारों बुनते, ना कोई पहरेदार होता।
बस मम्मी की‍ डांट होती और डैडी का प्यार होता॥

ना उड़ने कि होड़ होती, ना कोई दावेदार होता।
हम बेफिक्र सोते और मौसम बहार होता॥

ज़ुल्म है कि जब भी ये सपना देखता हूँ,
घड़ी सुबह की याद दिलाती है॥
रोज़ सोमवार होता है और दिल बेहिसाब रोता है,
गोया इतवार हमेशा शनीचर के बाद हीं क्यों होता है?

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